देशद्रोह कानून पर रोक लगाने के करीब सात महीने बाद सुप्रीम कोर्ट औपनिवेशिक युग के इस दंडात्मक कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर बुधवार को सुनवाई करेगा। एक ऐतिहासिक आदेश में शीर्ष अदालत ने पिछले साल 11 मई को देशद्रोह के लिए इस दंडात्मक कानून को स्थगित करने का फैसला किया था। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट सोमवार को धार्मिक स्थलों पर 1991 के कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर भी सुनवाई होगी।
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा की पीठ ने कानून के खिलाफ एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया द्वारा दायर याचिका सहित 12 याचिकाओं को सुनवाई के लिए बुधवार को सूचीबद्ध किया है।
गौरतलब है कि बीते साल इस कानून को ताक पर रखते हुए तत्कालीन सीजेआई एन वी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने आदेश दिया था कि नई प्राथमिकी दर्ज करने के अलावा, इस कानून के तहत दर्ज मामलों में चल रही जांच, लंबित परीक्षण के साथ ही राजद्रोह कानून के तहत सभी कार्यवाही स्थगित रहेंगी। पीठ ने कहा था कि “आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) की कठोरता वर्तमान सामाजिक परिवेश के अनुरूप नहीं है। पीठ ने इसके इस प्रावधान पर पुनर्विचार की अनुमति दी थी। पीठ ने कहा था कि हम उम्मीद करते हैं कि जब तक प्रावधान की फिर से जांच पूरी नहीं हो जाती, तब तक सरकारों द्वारा कानून के पूर्वोक्त प्रावधान के उपयोग को जारी नहीं रखना उचित होगा।
कानून में क्या
आईपीसी 124ए के अनुसार, कोई व्यक्ति अगर कानून द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ शब्दों को बोलकर, लिखकर, इशारे से, दिखने योग्य संकेत या किसी अन्य तरह से असंतोष भड़काता है या ऐसी कोशिश करता है या सरकार के खिलाफ लोगों में घृणा, अवज्ञा या उत्तेजना पैदा करता या ऐसा करने की कोशिश करता है, तो इसे देशद्रोह मान कर हुए उसे तीन वर्ष कारावास से लेकर उम्रकैद तक और जुर्माने की सजा दी जा सकती है।
कानून के कई शब्दों का आईपीसी में भी स्पष्टीकरण
- असंतोष में दुश्मनी व निष्ठाहीनता की भावनाएं शामिल हैं।
- वे आक्षेपपूर्ण टिप्पणियां देशद्रोह नहीं होंगी, जिनमें घृणा, अवज्ञा या असंतोष भड़काने या ऐसी कोशिश किए बिना सरकार के कामों को कानूनी रास्ते से बदलने की बात हो।
- वे टिप्पणियां भी देशद्रोह नहीं होंगी, जिनमें सरकार के शासकीय व अन्य कामों के खिलाफ नापसंदगी दर्शाई जाए लेकिन घृणा, अवज्ञा या असंतोष भड़काने या ऐसी कोशिश न हो।
जन व्यवस्था बिगाड़ने वाले वक्तव्य देशद्रोह माने
- 1951 में पंजाब हाईकोर्ट और 1959 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने धारा 124ए को असांविधानिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जड़ें काटने वाला माना।
- 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में कहा कि सरकार या राजनीतिक दलों के खिलाफ दिए वक्तव्य गैर-कानूनी नहीं होते। लेकिन जन व्यवस्था बिगाड़ने वाले वक्तव्य देशद्रोह की श्रेणी में आएंगे।
भूलवश दस साल नहीं बन सका था कानून
- देशद्रोह कानून का इतिहास रोचक है। विधि आयोग की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि 1837 में आईपीसी का ड्राफ्ट बनाने वाले अंग्रेज अधिकारी थॉमस मैकॉले ने देशद्रोह कानून को धारा 113 में रखा। लेकिन किसी भूलवश इसे 1860 में लागू आईपीसी में शामिल नहीं किया जा सका। 1870 में विशेष अधिनियम 17 के जरिये सेक्शन 124ए आईपीसी में जोड़ा गया।
- यह ब्रिटेन के ‘देशद्रोह महाअपराध अधिनियम 1848’ की नकल था, जिसमें दोषियों को सजा में तीन साल की कैद से लेकर हमेशा के लिए सागर पार भेजना शामिल था।
पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 की वैधता के मामले में कल होगी सुनवाई
इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट सोमवार को धार्मिक स्थलों पर 1991 के कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर भी सुनवाई होगी। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की पीठ ने इस कानून के प्रावधानों के खिलाफ पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर याचिकाओं सहित छह याचिकाओं को सूचीबद्ध किया है।
क्या है पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991
गौरतलब है कि पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 एक अधिनियम है, जो 15 अगस्त 1947 तक अस्तित्व में आए हुए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को एक आस्था से दूसरे धर्म में परिवर्तित करने और किसी स्मारक के धार्मिक आधार पर रखरखाव पर रोक लगाता है। यह केंद्रीय कानून 18 सितंबर, 1991 को पारित किया गया था।