पाकुड़ । राष्ट्रीय जूट महोत्सव कार्यक्रम के दूसरे दिन के पहले सेशन की शुरुआत इजरा के वैज्ञानिक पार्थ सान्याल, वैज्ञानिक इजरा, सौमिता चौधरी, वैज्ञानिक इजरा, डॉ प्रदीप चक्रवती, सुवकांत नायक, स्टेट लीड जेएसएलपीएस, हेड कलस्टर इजरा के द्वारा जूट फाइबर अपग्रेडेशन, जूट ग्रेडिंग एवं रेशे का उपयोग कैसे की जाती है। इस संबंध में विस्तार से जानकारी किसानों को दी गई।
इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय जूट महोत्सव कार्यक्रम में कृषि विभाग द्वारा किसानों को मोटे अनाज के बारे में अवश्य जानकारी दी गई। जिला कृषि पदाधिकारी अरुण कुमार ने बताया कि खान-पान की व्यवस्था में बहुत बदलाव आया है। आज से सिर्फ तीन दशक पहले हमारे खाने की परंपरा बिल्कुल अलग थी। हम मोटा अनाज खाने वाले लोग थे। मोटा अनाज मतलब- ज्वार, बाजरा, रागी (मडुआ), सवां, कोदों और इसी तरह के मोटे अनाज। आज के इस युग में देखते ही देखते सभी लोग गेहूं व चावल को अपनी थाली में सजा लिया और मोटे अनाज को खुद से दूर कर दिया। जिस अनाज को हमारी कई पीढियां खाते आ रही थी, उससे हमने मुंह मोड़ लिया और आज अब इस पोषक आहार की पूरी दुनिया में डिमांड है। केंद्र सरकार भी मोटे अनाज की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने पर बल देना शुरू कर दी है।
क्या होता है मोटा अनाज
हमारे यहां दशकों से मोटे अनाज की खेती की परंपरा रही है। हमारे पूर्वज व किसान मोटे अनाज की उत्पादन पर निर्भर रहे है। कृषि वैज्ञानिक की माने तो देश में कुल खाद्यान्न उत्पादन में मोटे अनाज की हिस्सेदारी 40 फीसदी थी।
मोटे अनाज के तौर पर ज्वार, बाजरा, रागी (मडुआ), जौ, कोदो, सामा, बाजरा, सांवा, लघु धान्य या कुटकी, कांगनी और चीना जैसे अनाज शामिल है। इसे मोटा अनाज इसलिए कहा जाता है क्योंकि इनके उत्पादन में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। ये अनाज कम पानी और कम उपजाऊ भूमि में भी उग जाते हैं।
धान और गेहूं की तुलना में मोटे अनाज के उत्पादन में पानी की खपत बहुत कम होती है। इसकी खेती में यूरिया और दूसरे रसायनों की जरूरत भी नहीं पड़ती।मोटे अनाज के रूप में कभी गरीबों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली मक्के की खेती को कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है।