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विधि आयोग के ऐलान के बाद से उसके पास सुझावों के ढेर आने लग गये हैं। देश में समान नागरिक संहिता की प्रमुखता से वकालत करने वाले उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने भी विधि आयोग के चेयरमैन ऋतुराज अवस्थी को अपने सुझाव भेजे हैं।
देश में लोकसभा चुनाव होने में एक साल से भी कम का समय बचा है ऐसे में भाजपा 2019 के घोषणापत्र में किये गये चुनावी वादों को पूरा करने में लगी हुई है। इसी के साथ ही पार्टी अपने दशकों पुराने वादे भी पूरे करने में जुटी है। इस क्रम में भाजपा ने अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर निर्माण करवाने, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने, मुस्लिम महिलाओं को ट्रिपल तलाक से आजादी दिलाने और नागरिकता कानून में संशोधन करने जैसे बड़े वादे तो पूरे कर दिये हैं अब उसका अगला कदम समान नागरिक संहिता लाने और जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाना हो सकता है। इसकी सुगबुगाहट तब शुरू हुई जब हाल ही में विधि आयोग ने ऐलान किया कि उसने राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दे ‘समान नागरिक संहिता’ (यूसीसी) पर लोगों तथा मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों के सदस्यों सहित विभिन्न हितधारकों के विचार आमंत्रित कर नये सिरे से परामर्श की प्रक्रिया शुरू कर दी है। आयोग ने सभी संबंधित पक्षों को सुझाव भेजने के लिए एक महीने का समय भी दिया है।
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विधि आयोग की इस घोषणा पर कांग्रेस का कहना है कि यह कदम दर्शाता है कि मोदी सरकार अपनी विफलताओं से ध्यान भटकाने और ध्रुवीकरण के अपने एजेंडे को वैधानिक रूप से जायज ठहराने के लिए व्याकुल है। वहीं भाजपा ने तर्क दिया है कि उच्चतम न्यायालय सहित विभिन्न अदालतों ने समान नागरिक संहिता की वकालत की है। भाजपा का यह भी कहना है कि समान नागरिक संहिता राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का हिस्सा है और ‘यह कुछ ऐसा है जिसे हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में शामिल करना महत्वपूर्ण समझा’। भाजपा का यह भी कहना है कि विधि आयोग एक स्वतंत्र निकाय है और उसने समान नागरिक संहिता पर सार्वजनिक विचार-विमर्श के लिए भी इस दिशा में कदम उठाया है।
बहरहाल, विधि आयोग के ऐलान के बाद से उसके पास सुझावों के ढेर आने लग गये हैं। देश में समान नागरिक संहिता की प्रमुखता से वकालत करने वाले उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने भी विधि आयोग के चेयरमैन ऋतुराज अवस्थी को अपने सुझाव भेजे हैं। देश में पीआईएल मैन के रूप में विख्यात अश्विनी उपाध्याय के सुझावों को लेकर हमने जब उनसे बात की तो उन्होंने कहा कि हमने जो प्रमुख सुझाव दिया है वह यह है कि कॉमन सिविल कोड या यूनिफॉर्म सिविल कोड की बजाय आप इंडियन सिविल कोड बनाइये। उन्होंने कहा कि समान नागरिक संहिता के बारे में पहले ही बहुत भ्रम फैलाया जा चुका है इसलिए उस नाम से कुछ आयेगा तो उसका विरोध होगा। अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि जब भारत में पहले से ही इंडियन पीनल कोड है तो इंडियन सिविल कोड आयेगा तो कोई विरोध नहीं करेगा। अश्विनी उपाध्याय ने विधि आयोग के समक्ष वर्तमान की जो समस्याएं बताई हैं वह इस प्रकार हैं-
1. मुस्लिम पर्सनल लॉ में बहु-विवाह करने की छूट है लेकिन अन्य धर्मों में ‘एक पति-एक पत्नी’ का नियम बहुत कड़ाई से लागू है। बाझपन या नपुंसकता जैसा उचित कारण होने पर भी हिंदू, ईसाई, पारसी के लिए दूसरा विवाह अपराध है और IPC की धारा 494 में 7 वर्ष की सजा का प्रावधान है इसीलिए कई लोग दूसरा विवाह करने के लिए मुस्लिम धर्म अपना लेते हैं। भारत जैसे सेक्युलर देश में चार निकाह जायज है जबकि इस्लामिक देश पाकिस्तान में पहली बीवी की इजाजत के बिना शौहर दूसरा निकाह नहीं कर सकता हैं। ‘एक पति-एक पत्नी’ किसी भी प्रकार से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि “सिविल राइट, ह्यूमन राइट और राइट टू डिग्निटी” का मामला है इसलिए यह जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए।
2. विवाह की न्यूनतम उम्र सबके लिए समान नहीं है। मुस्लिम लड़कियों की वयस्कता की उम्र निर्धारित नहीं है और माहवारी शुरू होने पर लड़की को निकाह योग्य मान लिया जाता है इसलिए 9 वर्ष की उम्र में लड़कियों का निकाह कर दिया जाता है जबकि अन्य धर्मों में लड़कियों की विवाह की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष और लड़कों की विवाह की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष है. विश्व स्वास्थ्य संगठन कई बार कह चुका कि 20 वर्ष से पहले लड़की शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होती है और 20 वर्ष से पहले गर्भधारण करना जच्चा-बच्चा दोनों के लिए अत्यधिक हानिकारक है, लड़का हो या लड़की, 21 वर्ष से पहले दोनों ही मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होते हैं, 21 वर्ष से पहले तो बच्चे ग्रेजुएशन भी नहीं कर पाते हैं और 21 वर्ष से पहले बच्चे आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर भी नहीं होते हैं इसलिए विवाह की न्यूनतम उम्र सबके लिए एक समान 21 वर्ष करना नितांत आवश्यक है। ‘विवाह की न्यूनतम उम्र’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए।
3. तीन तलाक अवैध घोषित होने के बावजूद अन्य प्रकार के मौखिक तलाक (तलाक-ए-हसन एवं तलाक-ए-अहसन) आज भी मान्य है और इसमें भी तलाक का आधार बताने की बाध्यता नहीं है और केवल 3 महीने प्रतीक्षा करना है जबकि अन्य धर्मों में केवल न्यायालय के माध्यम से ही विवाह-विच्छेद हो सकता है। हिंदू, ईसाई और पारसी दंपति आपसी सहमति से भी मौखिक विवाह-विच्छेद की सुविधा से वंचित हैं। मुसलमानों में प्रचलित तलाक का न्यायपालिका के प्रति जवाबदेही नहीं होने के कारण मुस्लिम बेटियों को हमेशा भय के वातावरण में रहना पड़ता है। तुर्की जैसे मुस्लिम बाहुल्य देश में भी किसी तरह का मौखिक तलाक मान्य नहीं है इसलिए तलाक का आधार भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।
4. मुस्लिम कानून में मौखिक वसीयत एवं दान मान्य है लेकिन अन्य धर्मों में केवल पंजीकृत वसीयत एवं दान ही मान्य है। मुस्लिम कानून में एक-तिहाई से अधिक संपत्ति का वसीयत नहीं किया जा सकता है जबकि अन्य धर्मों में शत-प्रतिशत संपत्ति का वसीयत किया जा सकता है। वसीयत और दान किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।
5. मुस्लिम कानून में ‘उत्तराधिकार’ की व्यवस्था अत्यधिक जटिल है, पैतृक संपत्ति में पुत्र एवं पुत्रियों के मध्य अत्यधिक भेदभाव है, अन्य धर्मों में भी विवाहोपरान्त अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं और उत्तराधिकार के कानून बहुत जटिल है, विवाह के बाद पुत्रियों के पैतृक संपत्ति में अधिकार सुरक्षित रखने की व्यवस्था नहीं है और विवाहोपरान्त अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं। ‘उत्तराधिकार’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।
6. विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार भी सबके लिए एक समान नहीं है। व्याभिचार के आधार पर मुस्लिम अपनी बीबी को तलाक दे सकता है लेकिन बीवी अपने शौहर को तलाक नहीं दे सकती है। हिंदू, पारसी और ईसाई धर्म में तो व्याभिचार तलाक का ग्राउंड ही नहीं है। कोढ़ जैसी लाइलाज बीमारी के आधार पर हिंदू और ईसाई धर्म में तलाक हो सकता है लेकिन पारसी और मुस्लिम धर्म में नहीं। कम उम्र में विवाह के आधार पर हिंदू धर्म में विवाह विच्छेद हो सकता है लेकिन पारसी, ईसाई और मुस्लिम में यह संभव नहीं है। ‘विवाह विच्छेद’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।
7. गोद लेने और भरण-पोषण करने का नियम भी हिंदू, मुस्लिम, पारसी और ईसाई के लिए अलग-अलग है। मुस्लिम महिला गोद नहीं ले सकती है और अन्य धर्मों में भी पुरुष प्रधानता के साथ गोद लेने की व्यवस्था लागू है। ‘गोद लेने का अधिकार’ किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए।
8. विवाह-विच्छेद के बाद हिंदू बेटियों को तो गुजारा-भत्ता मिलता है लेकिन तलाक के बाद मुस्लिम बेटियों को गुजारा भत्ता नहीं मिलता है। गुजारा-भत्ता किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए। “भारतीय दंड संहिता” की तर्ज पर सभी नागरिकों के लिए एक समग्र समावेशी और एकीकृत “भारतीय नागरिक संहिता” लागू होने से विवाह विच्छेद के बाद सभी बहन बेटियों को गुजारा भत्ता मिलेगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई और धर्म, जाति, क्षेत्र, लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी।
9. पैतृक संपत्ति में पुत्र-पुत्री तथा बेटा-बहू को समान अधिकार प्राप्त नहीं है और धर्म, क्षेत्र और लिंग आधारित विसंगतियां हैं। विरासत और संपत्ति का अधिकार किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए। “भारतीय दंड संहिता” की तर्ज पर सभी नागरिकों के लिए एक समग्र समावेशी और एकीकृत “भारतीय नागरिक संहिता” लागू होने से धर्म क्षेत्र लिंग आधारित विसंगतियां समाप्त होगी और विरासत तथा संपत्ति का अधिकार सबके लिए एक समान होगा चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई।
10. पर्सनल लॉ लागू होने के कारण विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पति-पत्नी को समान अधिकार नहीं है जबकि यह किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है इसलिए यह भी पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफार्म होना चाहिए। “भारतीय दंड संहिता” की तर्ज पर सभी नागरिकों के लिए एक समग्र समावेशी और एकीकृत “भारतीय नागरिक संहिता” लागू होने से धर्म क्षेत्र लिंग आधारित विसंगतियां समाप्त होगी और विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति का अधिकार सबके लिए एक समान होगा चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई।
11. अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ लागू होने के कारण मुकदमों की सुनवाई में अत्यधिक समय लगता है। भारतीय दंड संहिता की तरह सभी नागरिकों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र समावेशी एवं एकीकृत भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से न्यायालय का बहुमूल्य समय बचेगा।
12. अलग-अलग संप्रदाय के लिए लागू अलग-अलग ब्रिटिश कानूनों से नागरिकों के मन में हीन भावना व्याप्त है। भारतीय दंड संहिता की तर्ज पर देश के सभी नागरिकों के लिए एक समग्र समावेशी और एकीकृत “भारतीय नागरिक संहिता” लागू होने से समाज को सैंकड़ों जटिल, बेकार और पुराने कानूनों ही नहीं बल्कि हीन भावना से भी मुक्ति मिलेगी।
13. अलग-अलग पर्सनल लॉ लागू होने के कारण अलगाववादी मानसिकता बढ़ रही है और हम एक अखण्ड राष्ट्र के निर्माण की दिशा में त्वरित गति से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। भारतीय दंड संहिता की तरह सभी नागरिकों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र समावेशी एवं एकीकृत भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से एक भारत श्रेष्ठ भारत का सपना साकार होगा।
14. हिंदू मैरिज एक्ट में तो महिला-पुरुष को लगभग एक समान अधिकार प्राप्त है लेकिन मुस्लिम और पारसी पर्सनल लॉ में बेटियों के अधिकारों में अत्यधिक भेदभाव है। भारतीय दंड संहिता की तरह सभी नागरिकों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र समावेशी एवं एकीकृत भारतीय नागरिक संहिता का सबसे ज्यादा फायदा मुस्लिम और पारसी बेटियों को मिलेगा क्योंकि उन्हें पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता है।
15. अलग-अलग पर्सनल लॉ के कारण रूढ़िवाद, कट्टरवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद बढ़ रहा है। देश के सभी नागरिकों के लिए एक समग्र और एकीकृत “भारतीय नागरिक संहिता” लागू होने से रूढ़िवाद, कट्टरवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद ही समाप्त नहीं होगा बल्कि वैज्ञानिक और तार्किक सोच भी विकसित होगी।
अश्विनी उपाध्याय ने विधि आयोग के समक्ष भारतीय नागरिक संहिता के पक्ष में जो तर्क रखे हैं वह इस प्रकार हैं-
1. आर्टिकल 14 के अनुसार देश के सभी नागरिक एक समान हैं, आर्टिकल 15 जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है, आर्टिकल 16 सबको समान अवसर उपलब्ध कराता है, आर्टिकल 19 देश मे कहीं पर भी जाकर पढ़ने, रहने, बसने, रोजगार करने का अधिकार देता और आर्टिकल 21 सबको सम्मान पूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता है। आर्टिकल 25 धर्म पालन का अधिकार देता है अधर्म का नहीं, रीतियों को पालन करने का अधिकार देता है कुरीतियों का नहीं, प्रथाओं को पालन करने का अधिकार देता है कुप्रथाओं का नहीं। देश के सभी नागरिकों के लिए एक समग्र समावेशी और एकीकृत “भारतीय नागरिक संहिता” लागू होने से आर्टिकल 25 के अंतर्गत प्राप्त मूलभूत धार्मिक अधिकार जैसे पूजा, नमाज या प्रार्थना करने, व्रत या रोजा रखने तथा मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा का प्रबंधन करने या धार्मिक स्कूल खोलने, धार्मिक शिक्षा का प्रचार प्रसार करने या विवाह-निकाह की कोई भी पद्धति अपनाने या मृत्यु पश्चात अंतिम संस्कार के लिए कोई भी तरीका अपनाने में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं होगा।
2. विवाह की न्यूनतम उम्र, विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार, गुजारा भत्ता, गोद लेने का नियम, विरासत का नियम और संपत्ति का अधिकार सहित उपरोक्त सभी विषय सिविल राइट और ह्यूमन राइट से सम्बन्धित हैं जिनका न तो मजहब से किसी तरह का संबंध है और न तो इन्हें धार्मिक या मजहबी व्यवहार कहा जा सकता है लेकिन आजादी के 75 साल बाद भी धर्म या मजहब के नाम पर महिला-पुरुष में भेदभाव जारी है। हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 के माध्यम से ‘समान नागरिक संहिता’ की कल्पना की थी ताकि सबको समान अधिकार और समान अवसर मिलें और देश की एकता, अखंडता मजबूत हो लेकिन वोट बैंक राजनीति के कारण ‘समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता’ का एक ड्राफ्ट भी नहीं बनाया गया। जिस दिन ‘भारतीय नागरिक संहिता’ का एक ड्राफ्ट बनाकर सार्वजनिक कर दिया जाएगा और आम जनता विशेषकर बहन बेटियों को इसके लाभ के बारे में पता चल जाएगा, उस दिन कोई भी इसका विरोध नहीं करेगा। सच तो यह है कि जो लोग समान नागरिक संहिता के बारे में कुछ नहीं जानते हैं वे ही इसका विरोध कर रहे हैं।
3. आर्टिकल 37 में स्पष्ट रूप से लिखा है कि नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करना सरकार की फंडामेंटल ड्यूटी है। जिस प्रकार संविधान का पालन करना सभी नागरिकों की फंडामेंटल ड्यूटी है उसी प्रकार संविधान को शत प्रतिशत लागू करना सरकार की फंडामेंटल ड्यूटी है। किसी भी सेक्युलर देश में धार्मिक आधार पर अलग-अलग कानून नहीं होता है लेकिन हमारे यहाँ आज भी हिंदू मैरिज एक्ट, पारसी मैरिज एक्ट और ईसाई मैरिज एक्ट लागू है, जब तक भारतीय नागरिक संहिता लागू नहीं होगी तब तक भारत को सेक्युलर कहना सेक्युलर शब्द को गाली देना है। यदि गोवा के सभी नागरिकों के लिए एक ‘समान नागरिक संहिता’ लागू हो सकती है तो देश के सभी नागरिकों के लिए एक ‘भारतीय नागरिक संहिता’ क्यों नहीं लागू हो सकती है?
4. जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और लिंग आधारित अलग-अलग कानून 1947 के विभाजन की बुझ चुकी आग में सुलगते हुए धुएं की तरह हैं जो विस्फोटक होकर देश की एकता को कभी भी खण्डित कर सकते हैं इसलिए इन्हें समाप्त कर एक ‘भारतीय नागरिक संहिता’ लागू करना न केवल धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए बल्कि देश की एकता-अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भी अति आवश्यक है। दुर्भाग्य से ‘भारतीय नागरिक संहिता’ को हमेशा तुष्टीकरण के चश्मे से देखा जाता रहा है। जब तक भारतीय नागरिक संहिता का ड्राफ्ट प्रकाशित नहीं होगा तब तक केवल हवा में ही चर्चा होगी।
5. भारतीय नागरिक संहिता में निम्निलखित 10 अध्याय हो सकते हैं-
अध्याय 1: विवाह की न्यूनतम आयु (Minimum Age of Marriage)
अध्याय 2: विवाह विच्छेद का आधार और विवाह विच्छेद का तरीका
अध्याय 3: गुजारा भत्ता का अधिकार और गुजारा भत्ता का तरीका
अध्याय 4: गोद लेने का आधार और गोद लेने का तरीका
अध्याय 5: भरण पोषण का अधिकार और भरण पोषण का तरीका
अध्याय 6: विरासत का अधिकार और विरासत का तरीका
अध्याय 7: वसीयत का अधिकार और वसीयत का तरीका
अध्याय 8: उत्तराधिकार और संपत्ति का अधिकार
अध्याय 9: एक पति एक पत्नी का नियम
अध्याय 10: दो बच्चों का नियम
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