Sunday, February 23, 2025
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झारखंड के राज्यपाल से मिले वरिष्ठ लेखक डॉ. रवींद्र नाथ तिवारी, भेंट की “संथाल हूल, 1855” पुस्तक

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राजभवन में ऐतिहासिक विषयों पर हुई गहन चर्चा

बिहार-झारखंड के वरिष्ठ लेखक, इतिहासकार और प्रख्यात पत्रकार डॉ. रवींद्र नाथ तिवारी ने झारखंड के राज्यपाल संतोष कुमार गंगवार से राजभवन में शिष्टाचार भेंट की। इस मुलाकात के दौरान उन्होंने झारखंड की उच्च शिक्षा, स्वतंत्रता संग्राम और संथाल हूल के ऐतिहासिक योगदान पर विस्तृत चर्चा की। इस अवसर पर डॉ. तिवारी ने अपनी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पुस्तक “संथाल हूल (30 जून 1855-56): भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम” और अपने संपादन में प्रकाशित राष्ट्रीय मासिक पत्रिका “भारत वार्ता” राज्यपाल को भेंट की।

संथाल हूल: भारत के स्वाधीनता संग्राम का अनछुआ अध्याय

राज्यपाल से बातचीत के दौरान डॉ. तिवारी ने संथाल हूल के ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व पर विशेष रूप से प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि “हूल” एक संथाली शब्द है, जिसका अर्थ “क्रांति” या “विद्रोह” होता है। यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पहला संगठित संघर्ष था, जिसे 1857 के सिपाही विद्रोह से भी पहले लड़ा गया

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डॉ. तिवारी ने बताया कि इस पुस्तक की प्रथम प्रति राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भेंट की गई थी। उन्होंने राज्यपाल को अवगत कराया कि 30 जून 1855 को साहिबगंज जिले के भोगनाडीह गांव से संथाल विद्रोह की चिंगारी फूटी थी। इस विद्रोह का नेतृत्व सिदो-कान्हू और उनके दो अन्य भाइयों तथा दो बहनों ने किया था, जिनके साथ 30,000 संथाल क्रांतिकारी खड़े थे। यह क्रांति अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक संगठित संघर्ष थी, जिसे दबाने के लिए अंग्रेजों को विशेष रणनीति अपनानी पड़ी।

संथाल क्रांति के ऐतिहासिक साक्ष्य और प्रमाण

इस विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार को विशेष रूप से इंग्लैंड से बड़ी संख्या में सैनिक बुलाने पड़े। अंग्रेज अफसरों ने अपनी रिपोर्टों में उल्लेख किया कि संथाल क्रांतिकारियों ने अद्भुत साहस और वीरता का परिचय दियामेजर जार्विस ने इस क्रांति के बारे में लिखा कि “पूरे संघर्ष के दौरान संथाल योद्धाओं ने न कभी हार मानी, न कभी पीछे हटे और न ही पीठ दिखाई।”

संथाल हूल की क्रांति की ज्वाला संथाल परगना से निकलकर झारखंड के बड़े हिस्सों से होते हुए बिहार और बंगाल तक फैल गई। इस विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सेना ने पहली बार सैनिकों को ट्रेनों के माध्यम से युद्धस्थल तक पहुंचाया। यह रणनीति बाद में अंग्रेजों की सैन्य रणनीति का अहम हिस्सा बन गई। इस विद्रोह की विस्तृत जानकारी उस समय के ब्रिटिश अखबारों, पत्रिकाओं, किताबों और रिपोर्टों में दर्ज है।

पुस्तक की विशेषताएं: क्या है नया?

डॉ. तिवारी की यह पुस्तक केवल ऐतिहासिक घटनाओं का संकलन मात्र नहीं है, बल्कि इसमें संथाल विद्रोह को भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के रूप में स्थापित करने के लिए साक्ष्य-आधारित शोध प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक में अंग्रेजों के सरकारी दस्तावेज, समाचार पत्रों की रिपोर्ट्स और ऐतिहासिक पत्रों को शामिल किया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि संथाल हूल को भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए।

इसके अतिरिक्त, पुस्तक में उन सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों पर भी प्रकाश डाला गया है, जिन्होंने इस विद्रोह को जन्म दिया। कैसे संथाल समुदाय पर हो रहे अत्याचार, जबरन लगान, भूमि हड़पने की नीतियों और ब्रिटिश अधिकारियों की दमनकारी नीतियों ने इस विद्रोह को भड़काने का काम किया, इसका विस्तृत विश्लेषण पुस्तक में किया गया है।

राज्यपाल ने पुस्तक पढ़ने का दिया आश्वासन

राज्यपाल संतोष कुमार गंगवार ने मुलाकात के दौरान डॉ. तिवारी को आश्वस्त किया कि वे इस पुस्तक को पढ़ने के बाद अपनी प्रतिक्रिया साझा करेंगे। उन्होंने इस क्रांति के ऐतिहासिक महत्व पर चर्चा करते हुए कहा कि संथाल हूल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक गौरवशाली अध्याय है। उन्होंने यह भी माना कि इस पुस्तक के माध्यम से संथाल विद्रोह का व्यापक अध्ययन और प्रचार-प्रसार होना चाहिए

राज्यपाल संतोष कुमार गंगवार: एक अनुभवी और संवेदनशील नेता

उत्तर प्रदेश के बरेली लोकसभा सीट से आठ बार सांसद रह चुके संतोष कुमार गंगवार, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी सरकार में कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों का दायित्व संभाल चुके हैं। वे देश के कुछ अनुभवी, संवेदनशील, विकासवादी और जनसरोकार से जुड़े नेताओं में गिने जाते हैं

78 वर्षीय संतोष कुमार गंगवार ने भौतिकी (फिजिक्स) और कानून की पढ़ाई की है। उनकी प्रशासनिक और राजनीतिक दूरदर्शिता झारखंड के विकास में भी अहम भूमिका निभा सकती है। उनके नेतृत्व में शिक्षा, संस्कृति और सामाजिक कल्याण को लेकर भी कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए जा सकते हैं।

संथाल हूल: गौरवशाली इतिहास की पहचान

डॉ. तिवारी की पुस्तक “संथाल हूल, 1855” केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज ही नहीं, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक भूली-बिसरी गाथा को पुनर्जीवित करने का प्रयास है। उन्होंने इसे आजादी के अमृत महोत्सव के तहत लिखा, ताकि संथाल क्रांति की वीरगाथा को नई पीढ़ी तक पहुंचाया जा सके

उनकी यह पहल भारत के इतिहास को एक नए दृष्टिकोण से देखने और समझने का अवसर प्रदान करती है। निश्चित रूप से यह पुस्तक इतिहास प्रेमियों, शोधकर्ताओं और पाठकों के लिए बेहद उपयोगी और प्रेरणादायक साबित होगी

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