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दुमका16 मिनट पहले
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ट्रेन से यात्रा कर सीएम पहुंचे
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन संताल हूल की 167वीं वर्षगांठ पर भोगनाडीह में होंगे। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन शहीद सिदो-कान्हू के जन्मस्थली पर आज श्रद्धांजलि देंगे। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के आगमन को लेकर विशेष तैयारी की गयी है। भव्य आयोजन किया जायेगा विशेष पंडाल तैयार किया गया बहै। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कल 29 जून की शाम को 7.20 मिट पर रांची रेलवे स्टेशन से रांची-भागलपुर वनांचल एक्सप्रेस से बरहरवा पहुंचे हैं।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का ट्ववीट
हेमंत सोरेन ने किया ट्वीट
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने हूल दिवस पर ट्वीट करते हुए लिखा है, हूल क्रांति के महानायक अमर वीर शहीद सिदो-कान्हू, चांद-भैरव और फूलो-झानो समेत अमर वीर शहीदों को शत-शत नमन।
हूल जोहार!
झारखण्ड के वीर शहीद अमर रहें!
जय झारखण्ड!
आज का क्या है मुख्यमंत्री का कार्यक्रम
ट्रेन की यात्रा में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन 30 जून की सुबह 5:50 बजे बरहरवा रेलवे स्टेशन पर पहुंचे हैं। यहां से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पतना प्रखंड के धरमपुर स्थित आवास पहुंचेगे जहां वह विश्राम करेंगे। लगभग 12:10 बजे शहीद स्थल पंचकठिया में होगे। यहीं से सिदो-कान्हू को श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद 12:55 बजे भोगनाडीह पहुंचेगें। भोगनाडीह में शहीद की प्रतिमा पर माल्यार्पण करेंगे,शहीद के वंशजों से मुलाकात करने के बाद विभिन्न सरकारी कार्यक्रम में हिस्सा लेंगे। शाम करीब 4 बजे मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पतना धरमपुर आवास आयेंगे। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन रात 10 बजे बरहरवा रेलवे स्टेशन से भागलपुर-रांची वनांचल एक्सप्रेस से ही रांची के लिये रवाना हो जायेंगे।
लंबे समय से संताल हूल को आजादी की पहली लड़ाई का हक देने की मांग
संताल हूल को लेकर लंबे समय से चर्चा हो रही है। संथाल हूल ही आजादी की पहली लड़ाई थी। चारों भाइयों सिदो, कान्हू, चांद और भैरव के साथ फूलो और झानो ने अंग्रेजों और महाजनों से जमकर लोहा लिया। रानी लक्ष्मीबाई से काफी पहले इन्होंने आजादी की ज्वाला जलाई थी। फूलो-झानो को इतिहास में शायद ही लोग जानते हैं।
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी कई मौकों पर यह बात कही है कि संताल हूल को इतिहास में स्थान नहीं मिला। हेमंत सोरेन ने पांच साल पहले दैनिक भास्कर से बातचीत में कहा कि सिदो-कान्हू सहित अन्य सपूतों ने 1855 में ही अंग्रेजों से लड़ाई की थी। उस समय के इतिहासकारों ने सिदो-कान्हू की कुर्बानी को जगह नहीं दी। इसीलिए 1857 के विद्रोह को आजादी की पहली लड़ाई माना गया है।
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